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हास्य-व्यंग्य >> आवारा भीड़ के खतरे

आवारा भीड़ के खतरे

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2425
आईएसबीएन :81-267-0141-2

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध...

Aavara Bheed Ke Khatre a hindi book by - Harishankar Parsai - आवारा भीड़ के खतरे - हरिशंकर परसाई

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह पुस्तक हिन्दी के अन्यतम व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की मृत्यु के बाद उनके असंकलित और कुछेक अप्रकाशित व्यंग्य-निबंधों का एकमात्र संकलन है। अपनी कलम से जीवन ही जीवन छलकाने वाले इस लेखक की मृत्यु खुद में एक महत्वहीन-सी घटना बन गई लगती है। शायद ही हिन्दी साहित्य की किसी अन्य हस्ती ने साहित्य और समाज में जड़ जमाने की कोशिश करती मरणोन्मुखता पर इतनी सतत, इतनी करारी चोट की हो !

इस संग्रह के व्यंग्य-निबंधों के रचनाकाल का और उनकी विषयवस्तु का भी दायरा काफी लंबा-चौड़ा है। राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है। वैसे राजनीतिक व्यंग्य इस संकलन में अपेक्षाकृत कम हैं-सामाजिक और साहित्यिक प्रश्नों पर केन्द्रीकरण ज्यादा है।

आपको इस संग्रह में परसाई के बीहड़ अध्येता रूप के भी दर्शन होंगे। व्यंग्यकारों की विश्व-बिरादरी की चर्चा करते हुए, उनकी प्रमुख व्यंग्य रचनाओं का हवाला देते हुए प्रकारांतर से उन्होंने यहाँ यह भी स्थापित किया है कि हिन्दी व्यंग्य को घर की मुर्गी मानकर दाल की तरह उसका सेवन न किया जाए। अपने काम को सबसे पहले अपने समाज की जरूरत के पैमाने पर और उसके बाद सघनता की दृष्टि से विश्व-स्तरीयता के पैमाने पर तौलने की परसाई की इस सोच ने ही उनके लेखन को इस कदर टकसाली बनाया है।
हँसने और संजीदा होने की परसाई की यह आखिरी महफिल उनकी बाकी सारी महफिलों की तरह ही आपके लिए यादगार बनेगी।


संग्रह के बारे में

 

 

हरिशंकर परसाई देश के जागरुक प्रहरी रहे हैं, ऐसे प्रहरी जो खाने और सोने वाले तृप्त आदमियों की जमात में हमेशा जागते और रोते रहे। उनकी रचनाओं में जो व्यंग्य है, उसका उत्प्रेरक तत्व यही रोना है। रोनेवाले हमारे बीच बहुत हैं। कहते हैं रोने से ही जी हल्का होता है। वे जी हल्का करते हैं और फिर रोते हैं। झरना बन जाता है उनका मानस। उनकी शोकमग्नता आत्मघाती भी होती है। जनभाषा में एक कवि कबीर है, जिसने राह के बटमारों की गतिविधियों को खूब पहचाना। उसने जासूसी की। कपट को पारदर्शी आँखों से चीरने का काम उसने जीवनपर्यंत किया। ऐसा ही दूसरा लेखक बिरादरी में हुआ परसाई। हिंदी में अनेक तृप्त लेखक हैं जो उसके कृतित्व को लेखन की श्रेणी में नहीं मानते। पत्रकार कहते हैं। भाषा के खुरदरेपन से चिढ़ है। आंतरिक लोक के कोहरे से ही वे कुछ अलौकिक रत्न लाते हैं। उनकी भाषा में विशेष प्रकार की दूरी होती है। हरिशंकर परशाई का लेखन लेखकों की जमात में शामिल होने का नहीं है, उनकी जमात असंख्य जनता है। उन्होंने जनता के लिए केवल साहित्य की चर्चा नहीं की। उन्होंने जनता की गरीबी, सामाजिक विसंगतियाँ और विपदाएँ देखी। सामाजिक चिन्तन की पृष्टभूमि में अपनी संवेदना की दिशा तय की। अनियंत्रित और अनिर्दिष्ट संवेदना से दान-पुण्य के मूल्यों में भले वृद्धि हो, पर जनतंत्र के सामाजिक मूल्य उससे नहीं बनते। परसाई के लेखन की लेखन की यही सारवस्तु है।

हरिशंकर की मनोरचना विचारक की है। वे इस दृष्टि से बहुज्ञ हैं। सहज भाषा में विचारों के भार को हल्का कर वे निबंध लिखते रहे हैं। इस पुस्तक में इसी तरह के निबंध है। परसाई जी के विचारों को व्यवहार की आँख से देखते हैं, इसलिए उनका निरूपण विश्वसनीय है। सिद्धान्तों की व्यर्थता, समाजवाद और धर्म, महात्मा गाँधी से कौन डरता है, स्वस्थ सामाजिक हलचल और अराजकता, भारतीय गणतंत्र-आशंकाएँ और आशाएँ, आचार्य नरेंद्र देव और समाजवादी आंदोलन, धर्म विज्ञान और सामाजिक परिवर्तन, विचार मंथन के लेख हैं। मंथन की प्रक्रिया में परसाई उन लोगों पर गहरी निगाह रखते हैं जो उन सिद्धांतों के प्रवक्ता हैं। उनके यहाँ अंतर्विरोधों की पड़ताल निर्मम होती है। अपने समय की ज्वलंत समस्याओं के प्रति शासन स्वयंसेवी संस्थाओं, राजनीतिक दलों का जो नकली रवैया रहा आया है, उसकी फोटोग्राफी स्वतंत्र भारत में इतनी संजीदगी के साथ और कहाँ है ? धर्म के नकली रूप में सांप्रदायिकता विकसित की, राजनीति के दुरुपयोग ने भ्रष्टाचार और विज्ञान के दुरुपयोग ने उपभोक्तावाद और यंत्रवाद बढ़ाया। इससे धर्म, राजनीति और विज्ञान बदनाम हुए। हरिशंकर परसाई समाज की पटरी से उतरती गाड़ी को सीधे रास्ते में लाने का प्रयत्न करते हैं। भ्रम और शक्तिशाली माया-जाल पर तीखे प्रहार करने का साहस परसाई के लेखन में निरंतर मौजूद है। अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक, राजनीतिक और सामाजिक संदर्भों की पहचान के भरोसे परसाई के निबंधों में लोकव्याप्ति का गुण पाया जाता है। खूबी यह है कि वस्तु और भाषा की सार्थक एकता के लिए परसाई बेमिसाल है।

निबंधों का यह संग्रह परसाईजी की मृत्यु के बाद प्रकाशित हो रहा है। पुस्तकों की भूमिकाएँ उन्होंने हमेशा छोटी-छोटी लिखी हैं। आलोचकों या समृद्ध पुरुषों से उन्होंने भूमिकाएँ नहीं लिखवाईं। पहली पुस्तक ‘हँसते रोते हैं’ में भी यह नहीं किया। उनके पाठकों का दायरा इतना व्यापक है कि इसका आकलन करना संभव नहीं है। पाठकों की ही ताकत है, जिसके बल पर उनका लेखन स्थापित है।

मैं आशा रखता हूँ कि अन्य संग्रहों की भाँति यह भी पाठकों के बीच लोकप्रिय होगा।

 

-कमला प्रसाद

 


आवारा भीड़ के खतरे

 


एक अंतरंग गोष्ठी सी हो रही थी युवा असंतोष पर। इलाहाबाद के लक्ष्मीकान्त वर्मा ने बताया-पिछली दीपावली पर एक साड़ी की दुकान पर काँच के केस में सुंदर साड़ी से सजी एक सुंदर मॉडल खड़ी थी। एक युवक ने एकाएक पत्थर उठाकर उस पर दे मारा। काँच टूट गया। आसपास के लोगों ने पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया ? उसने तमतमाए चेहरे से जवाब दिया-हरामजादी बहुत खूबसूरत है।

हम 4-5 लेखक चर्चा करते रहे कि लड़के के इस कृत्य का क्या कारण है ? क्या अर्थ है ? यह कैसी मानसिकता है ? यह मानसिकता क्यों बनी ? बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ये सवाल दुनिया भर में युवाओं के बारे में उठ रहे हैं-पश्चिम से संपन्न देशों में भी और तीसरी दुनियाँ के गरीब देशों में भी। अमेरिका से आवारा हिप्पी और ‘हरे राम और हरे कृष्ण’ गाते अपनी व्यवस्था से असंतुष्ट युवा भारत आते हैं और भारत का युवा लालायित रहता है कि चाहे चपरासी का नाम मिले, अमेरिका में रहूँ। ‘स्टेट्स’ जाना यानि चौबीस घंटे गंगा नहाना है। ये अपवाद हैं। भीड़-की-भीड़ उन युवकों की है जो हताश, बेकार और क्रुद्ध हैं। संपन्न पश्चिम के युवकों के व्यवहार के कारण भिन्न हैं।
सवाल है-उस युवक ने सुंदर मॉडल पर पत्थर क्यों फेंका ? हरामजादी बहुत खूबसूरत है-यह उस गुस्से का कारण क्यों ? वाह, कितनी सुंदर है-ऐसा इस तरह के युवक क्यों नहीं कहते ?

युवक साधारण कुरता पाजामा पहिने था। चेहरा बुझा था जिसकी राख में चिंगारी निकली थी पत्थर फेंकते वक्त। शिक्षित था। बेकार था। नौकरी के लिए भटकता रहा था। धंधा कोई नहीं। घर की हालत खराब। घर में अपमान, बाहर अवहेलना। वह आत्म ग्लानि से क्षुब्ध। घुटन और गुस्सा एक नकारात्क भावना। सबसे शिकायत। ऐसी मानसिकता में सुंदरता देखकर चिढ़ होती है। खिले फूल बुरे लगते हैं। किसी के अच्छे घर से घृणा होती है। सुंदर कार पर थूकने का मन होता है। मीठा गाना सुनकर तकलीफ होती है। अच्छे कपड़े पहिने खुशहाल साथियों से विरक्ति होती है। जिस भी चीज से, खुशी, सुंदरता, संपन्नता, सफलता, प्रतिष्ठा का बोध होता है, उस पर गुस्सा आता है।

बूढ़े-सयाने स्कूल का लड़का अब मिडिल स्कूल में होता है तभी से शिकायत होने लगती है। वे कहते हैं-ये लड़के कैसे हो गए ? हमारे जमाने में ऐसा नहीं था। हम पिता, गुरु, समाज के आदरणीयों की बात सिर झुकाकर मानते थे। अब ये लड़के बहस करते हैं। किसी को नहीं मानते। मैं याद करता हूँ कि जब मैं छात्र था, तब मुझे पिता की बात गलत तो लगती थी, पर मैं प्रतिवाद नहीं करता था। गुरु का भी प्रतिवाद नहीं करता था। समाज के नेताओं का भी नहीं। मगर तब हम छात्रों को जो किशोरावस्था में थे, जानकारी ही क्या थी ? हमारे कस्बे में कुल दस-बारह अखबार आते थे। रेडियो नहीं। स्वतंत्रता संग्राम का जमाना था। सब नेता हमारे हीरो थे-स्थानीय भी और जवाहर लाला नेहरू भी। हम पिता, गुरु, समाज के नेता आदि की कमजोरियाँ नहीं जानते थे। मुझे बाद में समझ में आया कि मेरे पिता कोयले के भट्टों पर काम करने वाले गोंडों का शोषण करते थे।
पर अब मेरा ग्यारह साल का नाती पाँचवी कक्षा का छात्र है। वह सवेरे अखबार पढ़ता है, टेलीवीजन देखता है, रेडियो सुनता है। वह तमाम नेताओं की पोलें जानता है। देवीलाल और ओमप्रकाश चौटाला की आलोचना करता है। घर में उससे कुछ ऐसा करने को कहो तो वह प्रतिरोध करता है। मेरी बात भी तो सुनो। दिन भर पढ़कर आया हूँ। अब फिर कहते ही कि पढ़ने बैठ जाऊँ।

 थोड़ी देर खेलूँगा तो पढ़ाई भी नहीं होगी। हमारी पुस्तक में लिखा है। वह जानता है घर में बड़े कब-कब झूठ बोलते हैं।
ऊँची पढ़ाईवाले विश्वविद्यालय के छात्र सवेरे अखबार पढ़ते हैं, तो तमाम राजनीति और समाज के नेताओं के भ्रष्टाचार, पतनशीलता के किस्से पढ़ते हैं। अखबार देश को चलानेवालों और समाज के नियामकों के छल, कपट, प्रपंच, दुराचार की खबरों से भरे रहते हैं। धर्माचार्यों की चरित्र हीनता उजागर होती है। यही नेता अपने हर भाषण हर उपदेश में छात्रों से कहते हैं-युवकों, तुम्हें देश का निर्माण करना है (क्योंकि हमने नाश कर दिया है) तुम्हें चरित्रवान बनना है (क्योंकि हम तो चरित्रहीन हैं) शिक्षा का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है, नैतिक चरित्र को ग्रहण करना है-(हमने शिक्षा और अशिक्षा से पैसा कमाना और अनैतिक होना सीखा) इन नेताओं पर छात्रों-युवकों की आस्था कैसे जमे ? छात्र अपने प्रोफेसरों के बारे सब जानते हैं। उनका ऊँचा वेतन लेना और पढ़ाना नहीं। उनकी गुटबंदी, एक-दूसरे की टाँग खींचना, नीच कृत्य, द्वेषवश छात्रों को फेल करना, पक्षपात, छात्रों का गुटबंदी में उपयोग। छात्रों से कुछ नहीं छिपा रहता अब। वे घरेलू मामले जानते हैं। ऐसे गुरुओं पर छात्र कैसे आस्था जमाएँ। ये गुरु कहते हैं छात्रों को क्रांति करना है। वे क्रांति करने लगे, तो पहले अपने गुरुओं को साफ करेंगे। अधिकतर छात्र अपने गुरु से नफरत करते हैं।       
    
बड़े लड़के अपने पिता को भी जानते हैं। वे देखते हैं कि पिता का वेतन तो सात हजार है, पर घर का ठाठ आठ हजार रुपयों का है। मेरा बाप घूस खाता है। मुझे ईमानदारी के उपदेश देता है। हमारे समय के लड़के-लड़कियों के लिए सूचना और जानकारी के इतने माध्यम खुले हैं, कि वे सब क्षेत्रों में अपने बड़ों के बारे में सबकुछ जानते हैं। इसलिए युवाओं से ही नहीं बच्चों तक से पहले की तरह की अंध भक्ति और अंध आज्ञाकारिता की आशा नहीं की जा सकती। हमारे यहाँ ज्ञानी ने बहुत पहले कहा था-
प्राप्तेषु षोडसे वर्षे पुत्र मित्र समाचरेत।
उनसे बात की जा सकती है, उन्हें समझाया जा सकता है। कल परसों मेरा बारह साल का नाती बाहर खेल रहा था। उसकी परीक्षा हो चुकी है और एक लंबी छुट्टी है। उससे घर आने के लिए उसके चाचा ने दो-तीन बार कहा। डाँटा। वह आ गया और रोते हुए चिल्लाया हम क्या करें ? ऐसी तैसी सरकार की जिसने छुट्टी कर दी। छुट्टी काटना उसकी समस्या है। वह कुछ तो करेगा ही। दबाओगे तो विद्रोह कर देगा। जब बच्चे का यह हाल है तो किशोरों और तरुणों की प्रतिक्रियाएँ क्या होंगी।

युवक-युवतियों के सामने आस्था का संकट है। सब बड़े उनके सामने नंगे हैं। आदर्शों, सिद्धांतों, नैतिकताओं की धज्जियाँ उड़ते वे देखते हैं। वे धूर्तता, अनैतिकता, बेईमानी, नीचता को अपने सामने सफल एवं सार्थक होते देखते हैं। मूल्यों का संकट भी उनके सामने है। सब तरफ मूल्यहीनता उन्हें दिखती है। बाजार से लेकर धर्मस्थल तक। वे किस पर आस्था जमाएँ और किस के पद चिन्हों पर चलें ? किन मूल्यों को मानें ?

यूरोप में दूसरे महायुद्ध के दौरान जो पीढ़ी पैदा हुई उसे ‘लास्ट जनरेशन’ (खोई हुई पीढ़ी) का कहा जाता है। युद्ध के दौरान अभाव, भुखमरी, शिक्षा चिकित्सा की ठीक व्यवस्था नहीं। युद्ध में सब बड़े लगे हैं, तो बच्चों की परवाह करने वाले नहीं। बच्चों के बाप और बड़े भाई युद्ध में मारे गए। घर का, संपत्ति का, रोजगार का नाश हुआ। जीवन मूल्यों का नाश हुआ। ऐसे में बिना उचित शिक्षा, संस्कार, भोजन कपड़े के विनाश और मूल्यहीनता के बीज जो पीढ़ी बनकर जवान हुई, तो खोई हुई पीढ़ी इसके पास निराशा, अंधकार, असुरक्षा, अभाव, मूल्यहीनता के सिवाय कुछ नहीं था। विश्वास टूट गए थे। यह पीढ़ी निराश, विध्वंसवादी, अराजक, उपद्रवी, नकारवादी हुई। अंग्रेज लेखक जार्ज ओसबर्न ने इस क्रुद्ध पीढ़ी पर नाटक लिखा था जो बहुत पढ़ा गया और उस पर फिल्म भी बनी। नाटक का नाम ‘लुक बैक इन एंगर’। मगर यह सिलसिला यूरोप के फिर से व्यवस्थित और संपन्न होने पर भी चलता रहा। कुछ युवक समाज के ‘ड्राप आउट’ हुए। ‘वीट जनरेशन’ हुई। औद्योगीकरण के बाद यूरोप में काफी प्रतिशत बेकारी है। ब्रिटेन में अठारह प्रतिशत बेकारी है। अमेरिका ने युद्ध नहीं भोगा। मगर व्यवस्था से असंतोष वहाँ पैदा हो हुआ। अमेरिका में भी लगभग बीस प्रतिशत बेकारी है। वहाँ एक ओर बेकारी से पीड़ित युवक है, तो दूसरी ओर अतिशय संपन्नता से पीड़ित युवक भी। जैसे यूरोप में वैसे ही अमेरिकी युवकों, युवतियों का असंतोष, विद्रोह, नशेबाजी, यौन स्वच्छंदता और विध्वंसवादिता में प्रगट हुआ। जहाँ तक नशीली वस्तुओं के सेवन के सवाल है, यह पश्चिम में तो है ही, भारत में भी खूब है। दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यवेक्षण के अनुसार दो साल पहले सत्तावन फीसदी छात्र और पैंतीस फीसदी छात्र नशे के आदी बन गए। दिल्ली तो महानगर है। छोटे शहरों में, कस्बों में नशे आ गए हैं। किसी-किसी पान की दुकान में नशा हर जगह मिल जाता है। ‘स्मैक’ और ‘पॉट’ टॉफी की तरह उपलब्ध हैं।

छात्रों-युवकों को क्रांति की, सामाजिक परिवर्तन की शक्ति मानते हैं। सही मानते हैं। अगर छात्रों युवकों में विचार हो, दिशा हो संगठन हो और साकारात्मक उत्साह हो। वे अपने से ऊपर की पीढ़ी की बुराईयों को समझें तो उन्हीं बुराईयों के उत्तराधिकारी न बने, उनमें अपनी ओर से दूसरी बुराईयाँ मिलाकर पतन की परंपरा को आगे न बढ़ाएँ। सिर्फ आक्रोश तो आत्म क्षय करता है। एक हर्बर्ट मार्क्यूस चिंतक हो गए हैं, जो सदी के छठवें दशक में बहुत लोकप्रिय हो गए थे। वे ‘स्टूडेंट पावर’ में विश्वास करते थे। मानते हैं कि छात्र क्रांति कर सकते हैं। वैसे सही बात यह है कि अकेले छात्र क्रांति नहीं कर सकते। उन्हें समाज के दूसरे वर्गों को शिक्षित करके चेतनाशील बनाकर संघर्ष में साथ लाना होगा। लक्ष्य निर्धारित करना होगा। आखिर क्या बदलना है यह तो तय हो। अमेरिका में हर्बर्ट मार्क्यूस से प्रेरणा पाकर छात्रों ने नाटक ही किए। हो ची मिन्ह और चे गुएवारा के बड़े-बड़े चित्र लेकर जुलूस निकालना और भद्दी ,भौंड़ी, अश्लील हरकतें करना। अमेरिकी विश्विद्यालय की पत्रिकाओं में बेहद फूहड़ अश्लील चित्र और लेख कहानी। फ्रांस के छात्र अधिक गंभीर शिक्षित थे। राष्ट्रपति द गाल के समय छात्रों ने सोरोबोन विश्वविद्यायल में आंदोलन किया। लेखक ज्यां पाल सार्त्र ने उनका समर्थन किया। उनका नेता कोहने बेंडी प्रबुद्ध और गंभीर युवक था। उनके लिए राजनैतिक क्रांति करना संभव नहीं था। फ्रांस के श्रमिक संगठनों ने उनका साथ नहीं दिया। पर उनकी माँगें ठोस थी जैसे शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन। अपने यहाँ जैसी नकल करने की छूट की क्रांतिकारी मांग उनकी नहीं थी। पाकिस्तान में भी एक छात्र नेता तारिक अली ने क्रांति की धूम मचाई। फिर वह लंदन चला गया।

युवकों का यह तर्क सही नहीं है कि जब सभी पतित हैं, तो हम क्यों नहीं हों। सब दलदल में फँसे हैं, तो जो नए लोग हैं, उन्हें उन लोगों को वहाँ से निकालना चाहिए। यह नहीं कि वे भी उसी दलदल में फँस जाएँ। दुनिया में जो क्रांतियाँ हुई हैं, सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, उनमें युवकों की बड़ी भूमिका रही है। मगर जो पीढ़ी ऊपर की पीढ़ी की पतनशीलता अपना ले क्योंकि वह सुविधा की है और उसमें सुख है तो वह पीढ़ी कोई परिवर्तन नहीं कर सकती। ऐसे युवक हैं, जो क्रांतिकारिता का नाटक बहुत करते हैं, पर दहेज भरपूर ले लेते हैं। कारण बताते हैं-मैं तो दहेज को ठोकर मारता हूँ। पर पिताजी के सामने झुकना पड़ा। यदि युवकों के पास दिशा हो, संकल्पशीलता हो, संगठित संघर्ष हो तो वह परिवर्तन ला सकते हैं।
पर मैं देख रहा हूं एक नई पीढ़ी अपने से ऊपर की पीढ़ी से अधिक जड़ और दकियानूसी हो गई है। यह शायद हताशा से उत्पन्न भाग्यवाद के कारण हुआ है। अपने पिता से तत्ववादी, बुनियाद परस्त (फंडामेंटलिस्ट) लड़का है।

दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है। इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारावाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं। यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़ ब़ढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है।

 

जून 1991

 

सिद्धांतों की व्यर्थता

 

 

अब वे धमकी देने लगे हैं कि हम सिद्धांत और कार्यक्रम की राजनीति करेंगे। वे सभी जिनसे कहा जाता है कि सिद्धांत और कार्यक्रम बताओ। ज्योति बसु पूछते थे, नंबूदरीपाद पूछते थे। मगर वे बताते नहीं थे। हम लोगों को सिद्धांतों के बारे में पिछले चालीस सालों से सुनते-सुनते इतनी एलर्जी हो गई कि हमें उसमें दाल में काला नजर आता है। जब कोई नया मुख्यमंत्री कहता है कि मैं स्वच्छ प्रशासन दूँगा तब हमें घबराहट होती है। भगवान, अब क्या होगा ? ये तो स्वच्छ प्रशासन देने पर तुले हैं। स्वच्छ प्रशासन के मारे हम लोगों की किस्मत में कब तक स्वच्छ प्रशासन लिखा रहेगा।

हमारे देश में सबसे आसान काम आदर्शवाद बघारना है और फिर घटिया से घटिया उपयोगितावादी की तरह व्यवहार करना है। कई सदियों से हमारे देश के आदमी की प्रवृत्ति बनाई गई है अपने को आदर्शवादी घोषित करने की, त्यागी घोषित करने की। पैसा जोड़ना त्याग की घोषणा के साथ शुरु होता है। स्वाधीनता संग्राम के सालों में गाँधीजी के प्रभाव से आदर्शवादिता और त्याग राजनीति कर्ता को शोभा देने लगे थे। वे वर्ष त्याग के थे भी। मगर सत्ता की राजनीति एकठोस व्यवहारिक चीज है। विश्वनाथ प्रतापसिंह के साथ निकले लोगों और पहले से बाहर लोगों ने ‘जनमोर्चा’ बनाया था। ये लोग आदर्शवाद के मूड के थे। विश्वनाथ प्रताप को आदर्शवाद का नशा आ गया था। मोर्चे के नेता की हैसियत से उन्होंने घोषणा की कि मोर्चे का कोई सदस्य पाँच साल तक कोई पद नहीं लेगा। सब त्यागी हो गए। हमें तब लगा कि आगे चुनाव के बाद अगर ये जीत गए तो पद लेने के लिए इन्हें मानना पड़ेगा। हाथ जोड़ना पड़ेगा कि आप मुख्यमंत्री बन जाइए और वह कहेगा हटो-मैं पदलोलुप नहीं हूँ। मैं नहीं बनूँगा मुख्यमंत्री। तब मंत्रिमंडल कैसे बनेंगे ?

कोई मंत्री बनने को तैयार नहीं होगा। देश शासक विहीन होने की स्थिति में आ जाएगा। तब हमें इन नेताओं के दरवाजों पर सत्याग्रह करना पड़ेगा, आमरण अनशन करना पड़ेगा कि आप मंत्री नहीं होंगे, तो हम प्राण दे देंगे। तब कहीं ये पद ग्रहण को तैयार होंगे।

मगर अभी जो आपसी कशमकश चल रही है वह पदों के लिए है। समाजवादी दल बनना तय है तो उसमें त्यागी लोग अपनी सीट तय कर लेना चाहते है। सबसे बड़ी लड़ाई सबसे ऊँचे पद प्रधानमंत्री के लिए है। देवीलाल ने घोषणा कर दी और एन. टी रामाराव ने समर्थन कर दिया कि विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री होंगे। इस पर चंद्रशेखर और बहुगुणा को एतराज है। दोनों विश्वनाथ को अपना नेता नहीं मानते। एन. टी. रामाराव का कोई सिद्धांत नहीं है। रूपक सजाना कोई सिद्धांत नहीं। चावल सस्ता तीन रुपए किलो कर देंगे, अगर वोट हमें दिए-यह कोई सिद्धांत नहीं है। इस चावल सिद्धांत, वेश, चैतन्य रथ और नाटकबाजी से बने मुख्यमंत्री एन. टी. रामाराव कोई सिद्धांत मान भी नहीं सकते। देवीलाल का भी कोई सिद्धांत नहीं है। चंद्रशेखर कभी कांग्रेस में युवा तुर्क थे। वे समाजवादी थे। अब क्या हो गए हैं ? बहुगुणा की छवि वामपंथी की रही है। पिछले सालों से वे न जाने क्या हैं। पदलिप्सा को त्यागने की घोषणा करने वालों का हाल यह है कि पदों के लिए पार्टियाँ टूट रही हैं। मगर बहुगुणा और चंद्रशेखर को नेता नहीं मानते, तो विश्वनाथ ने भी इनसे कुछ जवाब माँगे और समाजवादी दल में शामिल होने के लिए शर्ते रखीं। अब सिद्धांत की जरूरत ही क्या ? मगर घोषणाएँ हो रही हैं कि गड़बड़ की तो हम सिद्धांत की राजनीति करने लगेंगे।



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